ख़याल-ए-मजबूर है हम और आप भी मजबूर
बेक़सूर रेहकर भी क्यों है, एक दूजे से दूर
जुदाई का आलम कभी तो ख़तम होगा ज़रूर
दुआ है बस इतनी की फिर एक मुलाकात हो आप से जान-ए-हुज़ूर
बेक़सूर रेहकर भी क्यों है, एक दूजे से दूर
जुदाई का आलम कभी तो ख़तम होगा ज़रूर
दुआ है बस इतनी की फिर एक मुलाकात हो आप से जान-ए-हुज़ूर
No comments:
Post a Comment